दास्तानगो - 1 Priyamvad द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दास्तानगो - 1

दास्तानगो

प्रियंवद

अंतिम फ़्रांसीसी उपनिवेश के अंतिम अवशेषों पर, पूरे चाँद की रात का पहला पहर था जब यह द्घटना द्घटी। समुद्र की काली और खुरदरी चट्टानों पर चिपके केकड़े किनारे की ओर सरकना शुरू कर चुके थे।

उस रात और भी बहुत कुछ विलक्षण द्घटा था, या यूं कहें, ऐसा कुछ जो अक्सर नहीं होता। मसलन उस रात पेड़ों की शाखों पर उलटा लटकने से पहले चमगादड़ों ने इतना ज्यादा पेशाब किया था, कि सुबह उसके गीलेपन को देखकर किसानों में भय पफैल गया था कि आकाश से अगर इतनी अधिक ओस गिरी तो उनकी पफसलें नष्ट हो जाएँगी। उसी रात तीन जवान लड़कियाँ टमाटर की चटनी में डूब कर मर गयीं। पानी की बूंदें खिड़की के काँच पर गिरने के बाद ऊपर की ओर जाने लगीं और कई चुम्बनों में विस्पफोट हो गए। चमकती चाँदनी के बीच पफंसी हवाओं में ताबीजों से छूटे हुए अनेक अमंगल कामनाओं से मंत्राब( जादू तैर रहे थे जिनकी हत्यारी पफुसपफ़साहटें शास्त्राीय राग में गाती हुयी चिड़ियों की तरह लग रहीं थीं।

पर यह सब कहीं, किसी इतिहास में दर्ज नहीं हुआ, उसी तरह, जिस तरह उस रात उन अवशेषों में द्घटित यह द्घटना भी किसी इतिहास में दर्ज नहीं हुयी।

अगर मछुआरों की छोटी नाव पर किनारे से बहुत दूर खड़े होकर देखा जाए तो पहली नजर में ये अवशेष नहीं दिखते थे। पर सूरज डूबने के बाद जब समुद्र की नमी और नमक से भारी हो चुकी तेज हवाओं के चलने के साथ ही थके सैलानी द्घरों को लौटने लगते... मछलियाँ किनारों की तरपफ आनेलगतीं... केकड़ों और चट्टानों पर सर पटक कर पफेन उगलती लहरों का शोर शुरू हो जाता और चाँद गहरा पीला होने लगता, तब उसकी चाँदनी में खंडहर होती इमारतों का एक ढाँचा दिखता जिसके अंदर कुछ रोशनियाँ भी रहतीं। ये इमारतें उसी तरह रह गयी थीं जिस तरह इन्हें बोरबन राजाओं को उखाड़ पफेंकने वाली फ़्रांसीसी क्रांति से बहुत साल पहले, यानी १७३० के आसपास, देश के दक्षिणी हिस्से में उस समय बनाया गया था, जब इनसे बहुत दूर हुगली के किनारे शिवरामपुर में डेनमार्क, चंद्रनगर में फ़्रांसीसी और चिनसुरा में हालैंड के व्यापारिक पूंजी द्घराने आ चुके थे, और कलकत्ता नाम का एक नया शहर बस चुका था जिसकी हवा बीमार कर देने वाली, पानी काला और मिट्टी नमी से भरी थी और जिसके पत्थर और चूने से बने पफर्श, और पफर्श से ऊपर तीन पिफट ऊँची दीवारें सीलन से भरी रहती थीं। दक्षिणी समुद्र के इस किनारे पर नमक, काली मिर्च, अपफीम और नील के फ़्रांसीसी सौदागरों ने बाजार के साथ इधर-उधर बिखरे राजाओं और नवाबों को अपनी मुट्ठी में करना शुरू कर दिया था। अपने सिपाही, हथियार, सेना तथा सेनानायक रखने शुरू कर दिए थे। समुद्र पर नजर रखने के लिए निगरानी चौकियाँ बना ली थीं। अपने अधिकारियों के द्घर और दफ्रतर बनाए थे। उनके जीवन को पवित्रा और शांत रखने के लिए चर्च और उनकी मृत्यु को स्मृतियों में जीवित रखने के लिए कब्रिस्तान बनाए थे। ये सब अवशेष उन्हीं के थे।

इतिहासकारों को इसका बहुत दुख है कि इस देश में आने वाले फ़्रांसीसी सेनानायकों ने यहाँ के बारे में अधिक नहीं लिखा है, सिवाय रे मेडक के, जिसने भी यूं ही कुछ बातें लिख दी हैं। द बोए फ़ांस लौटने के बाद बहुत साल जिंदा रहा पर शेम्बरी के अपने महल में बैठे हुए ग्रान्ट डपफ के साथ गप्पें मारने के अलावा उसने कुछ नहीं किया। जुलाहे के लड़के पेरों को तो कलम छूने से ही नपफरत थी। अलबत्ता इनके हिन्दुस्तानी मुंशियों ने जरूर खजाने की रोकड़, रोजनामचे या दफ्रतरी चिट्ठी पत्राी लिखी हैं जिनको खंगालने पर उस समय की कुछ बूंदें निचोड़ी जा सकती हैं। पर ये सब भी उस सलीके और तरतीब के साथ नहीं लिखी गयी हैं जिस तरह एंडरसन के मुंशी पफकीर खैरुद्दीन ने अपने अमूल्य संस्मरण लिख दिए हैं। इन फ़्रांसीसी सेनानायकों ने अगर इस मुल्क में बिताए अपने समय के बारे में स्मृतियों के सहारे ही कुछ लिखा होता, तो इंसानी जिं़दगी के अनेक रंग, अंधेरे उजाले में डूबा काल और उस काल में जीने मरने वाले असंख्य लोगों की दास्तानें हमें मिल जातीं। पिफर भी, उनके मुंशियों ने जो लिखा, जो सरकारी खतो-किताबत होती रही, जो रपटें फ़ांस भेजी जाती रहीं, वहाँ से जो आदेश आते रहे, जो ब्योरे तैयार किए जाते रहे, इंग्लैंड के साथ्ा जो रणनीतियाँ यूरोप में, और उनकी कंपनियों के साथ यहाँ बनती रहीं, मराठों, मुगलों और दक्षिणी नवाबों को जिस तरह धीरे-धीरे निचोड़ा जाता रहा, वे सब, या पिफर, यहाँ के फ़्रांसीसी सिपाहियों ने अपने द्घरों को जो खत लिखे और वहाँ से उनके पास जो खत आए और जो बाद में उनकी लाशों की जेबों में, किताबों में या पिफर किसी पत्थर के टुकड़े के नीचे दबे मिले, उन सबको इकट्ठा करके एक बड़ा दस्तावेजी कमरा बनाया गया। देश की आजादी के बाद भी, इस समुद्री किनारे वाले धुर दक्षिणी हिस्से पर कुछ समय के लिए फ़्रांसीसी अधिकार बना रह गया। उसी समय इन सारे दस्तावेजों को सिलसिले से इकट्ठा करके, सैकड़ों मजबूत जिल्दों में बाँध कर सुरक्षित रखा गया। फ़ांस में एक संस्था बनायी गयी जिसका मुख्य काम इस देश में फ़्रांसीसी साम्राज्य के पाँव जमाने और उसे बढ़ाने वाले महान देश भक्तों का विस्तृत इतिहास लिखना था। ये अवशेष और यह काम इस संस्था की देखरेख में आ गए। इसके लिए उसे फ़ांस से धन मिलता था। भयावह खामोशी, पुराने काग़जों की सीलन की गंध, समुद्र की नमी और नमक से गल चुकी बाहरी दीवारों और लकड़ी की चौखटों वाले इन जर्जर खंडहरों में, इस संस्था का दफ्रतर बनाया गया। इसके उद्देश्य को पूरा करने के लिए फ़ांस से पफारसी भाषा का एक विशेषज्ञ आता रहा।

वह विशेषज्ञ पुरानी पांडुलिपियाँ और दूसरे दस्तावेजों को खंगाल कर फ़्रांसीसी साम्राज्य के किसी विशेष कालखंड या किसी द्घटना का एक भव्य और नया इतिहास रचता। वे सारे फ़्रांसीसी सेनानायक जो यहाँ के यु(ों में लड़े, वे फ़्रांसीसी सिपाही जिनकी कब्रें इस देश में कहीं भी बनीं, वे राजनीतिज्ञ जिन्होंने मराठों, मुगलों और अंग्रेजों के बीच बिछी शतरंज की बाजी को पूरी कुशलता के साथ फ़ांस के हित में खेला और जिन्होंने यहाँ से अकूत धन फ़ांस भेजा या खुद ले गए, उन सबके जीवन-चरित्रा, योगदान और बलिदान को लिपिब( करता। इस व्यक्ति की नियुक्ति संस्था करती। उसे एक तय समय सीमा के अंदर दिए गए विषय पर शोध पूरा करके इतिहास लिखना होता था। यह समय सीमा तीन साल से पाँच साल तक कुछ भी हो सकती थी। इस नियुक्ति पर आने वाला बदलता रहता था और किसी भी देश का हो सकता था। फ़्रांसीसी, अंग्रेज, पफारसी का माहिर ईरानी या पिफर कोई हिन्दुस्तानी। इन इमारतों की देखभाल के लिए और इस नियुक्ति पर आने वाले का खाना बनाने और दूसरे काम करने के लिए एक व्यक्ति स्थायी रूप से रहता था। उसके रहने के लिए मुख्य इमारत के पीछे एक छोटा कमरा था।

चार साल के लिए जिस विशेषज्ञ की नियुक्ति इस 'सी शोर' सीमेट्री में दपफन दस तिलंगों की कब्रों और उनके जीवन का इतिहास लिखने के लिए हुयी थी, उसका नाम वामन गुलचीं पुंडरीक था। इसे छोटा करके कभी वाम, कभी गुल, कभी वामगुल और कभी पुंड बना दिया जाता था। उसकी उम्र पचपन के आसपास थी। वह पफारसी और फ़्रांसीसी जानता था। तीन सालों से वह यहाँ कब्रों और दस्तावेजों की सीलन और बासी गंध में रह रहा था। उसके पास एक शीशी थी जिसमें वह गहरे काले रंग की पहाड़ी मकड़ी बंद रखता था। उस मकड़ी के जहर में कामोत्तेजना को चार गुना बढ़ाने की शक्ति थी। जब वह गहरी थकान, ऊब और साँसों में बढ़े हुए भारीपन से द्घबरा जाता, तब शीशी में उंगली डालकर इस मकड़ी से अपने को डसवाता। समुद्र के किनारे नीची छत वाले एक जुआद्घर में जुआ खेलता। नीले रंग की खिड़की वाले मकान में रहने वाली और भारी नितम्बों की वजह से विपरीत रति में अलसाकर मैथुन करने वाली एक औरत के साथ रात गुजारता।

उसके सेवक का नाम पाकुड़ था। वह पिछले तैंतीस साल से वहाँ था। उसके पहले उसका पिता वहाँ चालीस साल रहा था। पाकुड़ की उमर तिरपन साल थी। उसके पास फ़ांसीसियों और इस जगह के बारे में पिता से सुने कुछ किस्से थे। पाकुड़ का परिवार वहाँ से आठ मील की दूरी पर रहता था। वह मछली पकड़ता और नमक की खेती करता था। इमारत के एटिक में लगी दूरबीन से पाकुड़ दिन में एक बार अपने द्घर को देख लेता था। वहाँ अपनी बीवी को कपड़े सुखाते, बेटे को खेत में समुद्र का पानी बाँधते और बहू को समुद्री पानी सूखने के बाद बचा हुआ नमक

बटोरते देखता। विशेषज्ञ के न रहने वाले दिनों में वह बिल्कुल अकेला रह जाता। तब उसके पास बहुत समय बचता। इस समय में वह शंख बनाता।

समुद्र से जितने ही पुराने, बिना रीढ़ के द्घोद्घों के कंकाल उनकी देह के बाहर होते थे, यही शंख थे। ये शंख सदियों से उन द्घोद्घों के सुंदर रंग और कान्ति के शानदार स्मारक थे। पानी में डूबी हुयी काली खुरदरी चट्टानों को पानी सापफ करता रहता था। उन पर पहले काई जमती थी पिफर वनस्पति और पिफर छोटे-छोटे द्घोद्घें खाने और शरण के लिए वहाँ द्घर बना लेते थे। इन द्घोद्घों के कंकाल पीठ पर बनना शुरू होते थे जिन्हें पीठ पर लिए वे द्घूमते रहते थे। ये द्घोद्घें इन्हें बाद में कहीं भी त्याग देते थे। कभी मैथुन और कभी यु( में भी ये शंख अलग हो जाते थे। ये समुद्र की तली में पड़े रहते। कभी लहरें इन्हें किनारे पर पफेंक जातीं, कभी ये मछली के पेट में मिलते और कभी मत्स्यकन्याएँ किनारे पर इनसे खेलने के बाद इन्हें भूल जातीं।

पाकुड़ इन शंखों को इकट्ठा करता। उन्हें सापफ करता, तराशता। वह महीनों तक एक शंख पर काम करता। उनके अंदर की सुरंग को संगीत के राग के हिसाब से द्घटाता बढ़ाता। उसके वर्तुलाकार सिर को सुनहरे रंग से रंगता। उस पर धातु की पतली पत्ती चढ़ाता। अंत में उस पर कई शास्त्राीय रागों को बजाकर देखता। वह शंखों की अलग-अलग आकृति से अनेक राग निकाल सकता था। शंख की किस आकृति के साथ, संगीत के किस राग को बजाना चाहिए, इसमें उसे निपुणता हासिल थी। ये शंख पत्थर में जमी पंखुरी की तरह, कान, अंडे, पेंच, तितली, पगड़ी, शेर के पंजे या कंद्घी की आकृतियों के थे। कुछ शंख अमूल्य रत्नों की तरह सुंदर और कान्तिमान थे। उसने सुना था कि किसी बुरे वक्त में इनसे कुछ भी खरीदा जा सकता है। अनाज, जमीन यहाँ तक कि औरत भी। उस बुरे समय की आशंका में वह उन्हें एक पेटी में बंद करके रखे हुए था। उसके बनाए शंख शहर के बाजार की एक बड़ी दुकान से होते हुए देश के

अनेक मंदिरों और शादी के मंडपों में बजाए जाते थे। उसे उन सब शंखों के नाम मालूम थे जो दुनिया के महान यु(ों में बजाए गए थे।

कई बार जब दूरबीन से अपना द्घर देखने पर उसे कोई नहीं दिखता तब वह द्घर के एटिक में खड़े होकर दस किरणों वाले तारे की शक्ल का कत्थई शंख बजाता। यह आवाज उसके द्घर तक पहुँचती। इसे सुनकर वहाँ से उसकी बीवी, असंख्य जुड़े हुए चावलों जैसा सपफेद शंख बजाती जिसकी आवाज से वह उनकी कुशलता जान लेता। उसने अपनी बीवी को शंख बजाने की कला तब सिखायी थी जब वह उसे शादी से पहले मिलने के लिए बुलाता था। नाव पर बैठकर वह सुनहरे मुँह के कछुए जैसे शंख से लहरों के गुजरने की आवाज निकालता। इस आवाज को उसका बहरा बाप और जाल सिलता हुआ उजड्ड भाई लहरों की ही समझते, पर उसकी बीवी, जो तब बिल्कुल जवान थी... भागती हुयी चली जाती। मछलियों, केकड़ों और मत्स्यकन्याओं ने कई बार चट्टानों की आड़ में दोनों को प्रेम करते और कई बार लड़की के न आ पाने पर पाकुड़ को द्घंटों रोते हुए देखा था। पाकुड़ ने लड़की को तभी शंख बजाना सिखाया था, इसलिए कि जब वह न आ सके तो सूखी हुयी हल्दी की शक्ल वाले शंख पर विलाप की लम्बी धुन निकालकर पाकुड़ को बता दे। आज भी जब पाकुड़ अपनी बीवी को शंख की धुन से बुलाता तो वह आठ मील दूर से भागती हुयी आती। अगर नहीं आ पाती तो विलाप की वही धुन शंख पर निकालती। उनके इस प्रेमातुर क्रन्दन और विलाप को अब समुद्र के सारे कड़ी पीठ वाले कछुए, मछलियाँ, मत्स्यकन्याएँ, चट्टानों से चिपके केकड़े, चर्च की ठंडी हो चुकी दीवारें और कब्रों के नीचे की भुरभुरी हड्डियाँ पहचानते थे।

किसी रात जब वह बहुत उदास हो जाता और ऐसा अक्सर पूरे चाँद की रात होता, तब वह अंडे की जर्दी की तरह पीले और बट्टे की आकृति वाले शंख पर गहरी उदासी की धुन बजाकर चाँद में रहने वाली बुढ़िया को सुनाता। धीरे-धीरे बुढ़िया से उसकी दोस्ती हो गयी थी। अब वह उससे बात भी कर लेता था। कई बार बुढ़िया जब चरखा कातते हुए थक जाती तब उससे शंख पर कोई धुन सुनाने को कहती। उस दिन वह ऐसी धुन बजाता कि लहरें उन्माद में चट्टानों को पार कर किनारे पर बनी डूप्ले की नीली मूर्ति को भिगो देतीं। उसकी मुड़ी हुयी ऊँची टोपी की गहराई छोटे केकड़े और सीपियों से भर जाती।